साधना का पथ अत्यंत दुष्कर है
और उतना ही सरल भी. जिनका हृदय सरल है, जहाँ प्रेम है, ऐसे हृदय के लिए साधना का
पथ फूलों से भरा है, पर राग-द्वेष जहाँ हों, अभाव खटकता हो, उसके लिए साधना का पथ
कठोर हो जाता है. कृपा का अनुभव भी उसे नहीं हो पाता, क्योंकि कृपा का बीज तो
श्रद्धा की भूमि में ही पनपता है, अनुर्वरक भूमि में नहीं. जहाँ हृदय में ईश्वर
प्राप्ति की प्यास ही नहीं जगी वहाँ उसके प्रेम रूपी जल की बरसात हो या नहीं कोई
फर्क नहीं पड़ता, जब मन में एक मात्र चाह उसी की हो तभी भीतर प्रकाश जगता है. उस
चाह की पूर्ति के लिए बाहरी साधनों की आवश्यकता गौण है, वहाँ मन ही प्रमुख है, मन को
ही प्रेम जल में नहला कर, भावनाओं के पुष्प अर्पित कर, श्रद्धा का दीपक जला, आस्था का तिलक लगा
कर शांति का मौन जप करना होता है. यह आंतरिक पूजा हमें उसकी निकटता का अनुभव कराती
है, साधक तब धीरे-धीरे आगे बढता हुआ एक दिन पूर्ण समर्पण कर पाता है.
उस प्रेम का जब अतिरेक होता है तब मन घबराता है - लगता है कहाँ लेकर जाएगा यह प्रेम। साफ नज़र आता है कि अस्तित्व चूर चूर हो बिखर रहा है, पिघल रहा है - इसके लिए मन कृतज्ञ महसूस करता है, पर लगता है कुछ पकड़ने को नहीं है। क्या आप बता सकती हैं ऐसे मे कोई क्या करे?
ReplyDeleteअति भाग्यशाली है वह आत्मा जिसका मन प्रेम के अतिरेक से पिघल रहा है, मन घबराता है क्योंकि वह मिटना नहीं चाहता, एक बार तो मन को मिटना ही होगा, अपने जिस रूप में वह अब है उस रूप में आत्मा का अनुभव उसे नहीं हो सकता. जैसे बीज मिटकर ही अंकुर बनता है, फिर एक नया मन मिलता है जिसे कुछ पकड़ने की चाह ही नहीं रहती, वह मुक्त होकर अनंत आकाश में विचरण कर सकता है, अपना घर उसे अब दूर नहीं लगता.
ReplyDeleteआपने यह भी सुना होगा जिसका कोई नहीं होता उसका भगवान होता है.. और यह भी कि निर्बल के बल राम..तो जब कुछ भी न हो तो भी परमात्मा सदा ही होता है..स्वागत व आभार वाणी जी !
उत्तर के लिए शुक्रिया। यह जान कर अच्छा लगा कि नया मन मिलेगा, कि अनत आकाश मे विचरण करने मिलेगा। :-)
Deleteमिलेगा नहीं मिल गया..
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