Sunday, March 1, 2015

एक ललक उससे मिलने कीं

जनवरी २००८ 
खुश रहना या न रहना हमारे मन पर ही निर्भर है, मन बुद्धि पर, बुद्धि विवेक पर, विवेक सत्संग पर, सत्संग गुरू से मिलता है और गुरू भगवान की कृपा से... तो अंततः भगवान ही कारण हुए, पर भगवान ने तो हमने पूर्ण स्वतन्त्रता दी है, हम यदि ठान लें तो खुश रहने से कौन रोक सकता है, यह ठानना ही तो विवेक है न ? ध्यान से हमें भीतर एक ऐसे स्थान का पता चलता है जहाँ सहज ही ख़ुशी बसती है. ध्यान से भीतर की दुनिया की झलक मिलती है. जीवन तभी तो जीवन कहलाने योग्य है जब तक उसमें कुछ नया-नया अनुभूत होता रहे. नये फूल खिलते रहें, एक प्रतीक्षा बनी रहे भीतर, इस प्रतीक्षा में कितना आनंद है, प्रियतम से मिलने की ललक है, कुछ नया घटने वाला है, कुछ ऐसा मिलने वाला है जो आज तक नहीं मिला, जो अमूल्य है. परमात्मा की राह पर चलो तो हर क्षण उपहार मिलते जाते हैं और हर अगला उपहार पहले से बेहतर होता है.  


2 comments:

  1. जीवन तभी तो जीवन कहलाने योग्य है जब तक उसमें कुछ नया-नया अनुभूत होता रहे. नये फूल खिलते रहें, एक प्रतीक्षा बनी रहे भीतर, इस प्रतीक्षा में कितना आनंद है......

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  2. स्वागत व आभार राहुल जी...

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