Sunday, October 26, 2014

मन पर न छा जाये बदली


संत कहते हैं, साधक को आत्मालोचन करना है, शास्त्रों के सिद्धांत को उसे व्यवहार में लाना है. अहिंसा को मनसा, वाचा, कर्मणा में अपनाना है. उसे संग्रह की भी एक सीमा बाँधनी है. उसे अपनी शक्तियों को पहचानना ही नहीं उन्हें व्यर्थ जाने से भी रोकना है. जब मन पल भर के लिए भी प्रमादी होता है तो उस शक्ति से वंचित हो जाता है और जब हम इस शक्ति पर कोई ध्यान नहीं देते तो देखते हैं, भीतर एक रिक्तता भर गयी है. चेतना का सूर्य जगमगाता रहे इसके लिए प्रमाद के बादलों को बढ़ने से रोकना होगा. तंद्रा के धूँए से बचना होगा. हमारा जीवन थोड़ा सा ही शेष बचा है. हर व्यक्ति जन्मते ही मृत्यु का परवाना साथ लेकर आता है. कुछ वर्षों का उसका जीवन यदि किसी अच्छे कार्य में लगता है तो ईश्वर के प्रति उसकी धन्यता प्रकट होती है. संतजन कितनी सुंदर राह पर चलने को प्रेरित करते हैं. हम भटक न जाएँ इसलिए वे भीतर से कचोटते भी रहते हैं. कई बार हम मंजिल के करीब आ-आकर फिर भटक जाते हैं. 

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