Tuesday, June 10, 2014

भीतर का जब दीप जलेगा

अप्रैल २००६ 
प्रकृति के नियमों के अनुसार यदि कोई जीता है तो जीवन एक उत्सव बन जाता है और उसका हर क्षण एक अमूल्य अनुभव ! हम इस धरा पर मानव देह पाकर एक अनोखी यात्रा पर निकले हैं. जब यहाँ आये थे तब निर्दोष थे, जगत के प्रभाव में आकर दिन-प्रतिदिन अपने मूल स्वभाव पर आवरण चढ़ाते गये, असहज होकर जीने लगे और परिणाम यह हुआ, अपने भीतर एक दर्द और भय को जगह देते गये. हमारे सारे कृत्यों का साक्षी बन कर परमात्मा सदा हमारे साथ है, हम ऊपर-ऊपर से स्वयं को जो भी दिखाएँ, भीतर जो सही है वह सही है, जो गलत है वह गलत है. भय और दर्द के कारण भीतर का प्रेम, जो हमारा सहज स्वभाव है, व्यक्त होने से रह जाता है, सत्य, करुणा तथा अपनत्व हमारा मूल स्वभाव है, इसके विपरीत जो भी है, वह झूठ है, ओढ़ा हुआ है, उससे मुक्त हुआ जा सकता है.


No comments:

Post a Comment