Monday, March 24, 2014

कृपा बरसती हर पल उसकी


जब हमारे जीवन में कोई ऐसा दुःख आता है जिसका प्रतिकार हमारे हाथ में नहीं होता, हम असहाय हो जाते हैं तो एक तरह से वह ईश्वर का वरदान ही होता है. हम निरहंकारी होकर उसके सम्मुख आत्मसमपर्ण कर देते हैं. उसकी ख़ुशी में ही अपनी ख़ुशी मानते हैं, हम ईश्वर के प्रति धनभागी होते हैं, कृतज्ञ होते हैं कि उसके निकट आने का कैसा सुअवसर उसने दिया. सुखों में खोकर तो हम उसे भुला ही देते हैं और समर्थता हममें अहंकार को भर देती है. हमें अपने स्वस्थ, सबल होने का जब अहंकार हो जाता है जब रोगी व्यक्ति हमारी सहानुभूति का पात्र नहीं हो पाते तो ईश्वर हमें भी उनके समकक्ष लाकर बिठा देते हैं ताकि हम अहंकार वश अपना ही नुकसान न करें. यदि हमारा लक्ष्य ईश्वर प्राप्ति है तो इस मार्ग में आने वाली सारी रुकावटों को दूर करने का काम प्रभु स्वयं करते हैं. वह सर्व समर्थ हैं, उनसे हमारा अटूट संबंध है. हम मानव होने के नाते उनकी सन्तान हैं, उनका अंश हैं, उन्हीं की तरह आनन्द स्वरूप हैं. यदि हम स्वयं को देह ही मानते रहे तो दुखी रहेंगे, मन या बुद्धि मानते रहें तो भी हमारे दुखों का अंत नहीं. जैसे ही हम स्वयं को आत्मा मानते हैं, हमारे सारे दुखों का अंत हो जाता है. यह देह तथा मन अस्थायी हैं, पल-पल बदल रहे हैं, न जाने कितनी बार हमने देह छोड़कर नई देह धारण की है. एक दिन इस देह को भी छोड़ना है, उसकी तैयारी अभी से हमें करनी है.


4 comments:

  1. ...साधना आवश्यक है ...!!मन को स्थिरता देना बहुत ज़रूरी है ...!!सार्थक विचार अनीता जी ...!!

    ReplyDelete
  2. दुख में सुमिरन सब करे सुख में करे न कोय ।
    जो सुख में सुमिरन करे तो दुख काहे होय ।
    कबीर

    ReplyDelete
  3. अनुपमा जी व शकुंतला जी, स्वागत व आभार !

    ReplyDelete
  4. जैसे ही हम स्वयं को आत्मा मानते हैं, हमारे सारे दुखों का अंत हो जाता है. यह देह तथा मन अस्थायी हैं, पल-पल बदल रहे हैं, न जाने कितनी बार हमने देह छोड़कर नई देह धारण की है. एक दिन इस देह को भी छोड़ना है, उसकी तैयारी अभी से हमें करनी है.

    ReplyDelete