जून २००५
सन्त
कहते हैं, जाने-अनजाने सभी प्राणी ईश्वर की ओर जा रहे हैं, वही हमारा ध्येय है,
वही हमारा प्राप्य है, मित्र है, आत्मीय है, अपना है, सदा साथ है. संसार साथ रहते
हुए भी कभी साथ नहीं रहता, अन्यथा किसी को अकेलेपन का अनुभव नहीं हो सकता था.
संसार में सभी कुछ बदल रहा है, पर भीतर एक केंद्र है जहां कुछ भी नहीं बदलता
अन्यथा हम इस परिवर्तन का आभास ही नहीं हो सकता था. जो उस केंद्र से परिचित है
जुड़ा है, वह स्थितप्रज्ञ है जो वियुक्त है वह हवा में उड़ने वाले पत्ते की तरह
इधर-उधर भटकता है. हमारे केंद्र में जिसे आत्मा भी कह सकते हैं, असीम प्रेम है,
सभी के भीतर उस की सत्ता है, जो परमात्मा का अंश है. उसका भान न होने पर व्यक्ति
स्वयं को विशिष्ट मानता है जो दुःख का कारण है. ध्यान के द्वारा हम अपने केंद्र से
जुड़ सकते हैं, तब व्यक्ति, वस्तु, परिस्थिति हमें अपना गुलाम नहीं बना सकती, पूर्ण
स्वाधीनता का अनुभव तभी होता है. स्वराज्य घटित होता है. तभी अध्यात्म में प्रवेश
मिलता है. जीवन तब सहज हो उठता है, कोई कार्य तब सप्रयास नहीं होता, छोटा हो या बड़ा
सभी कार्य अपने-आप होते प्रतीत होते हैं, हम साक्षी भाव में आ जाते हैं.
स्थितप्रज्ञ होने से मन में दिव्य ऊर्जा संचारित होती है अन्यथा जीवन भटकाव है .....बहुत सुंदर भाव ....!!
ReplyDeleteसाक्षी भाव में आ पाना ही बड़ी बात है।..आभार।
ReplyDeleteहमेशा याद रखने लायक है आज का डायरी का पन्ना .अति श्रेष्ठ ..
ReplyDeleteसत्य....सुमार्ग...जीवन का वृतांत कराती ये रचना...
ReplyDeleteकाफी उम्दा ....बधाई...बेहतरीन शब्द चयन....
नयी रचना
"एक नज़रिया"
आभार
प्रेरक और चिन्तनीय
ReplyDeleteकहॉ हो प्रभुवर कब मिलोगे ? साक्षी-भाव कहॉ से लायें ? सुन्दर रचना ।
ReplyDeleteअनुपमा जी, देवेन्द्र जी, दीदी, राहुल जी व रमाकांत जी आप सभी का स्वागत व आभार !
ReplyDelete