Wednesday, July 31, 2013

वैराग्य जगाता सच्चा प्रेम

दिसम्बर २०१३ 
हमारा मन ही हमारा शत्रु है और हमारा मन ही हमारा मित्र है, मन स्थूल है भाव सूक्ष्म है. जब तक भाव शुद्धि नहीं होती मन कभी मित्र कभी शत्रु बना रहता है. भाव शुद्धि के लिए ध्यान में गहरे उतरना होगा, हमारी चेतना पवित्र है पर उस पवित्रता का अनुभव हमें ध्यान में ही होता है, जाग्रत अवस्था में प्रतिक्षण संसार के प्रभाव इन्द्रियों के माध्यम से मन पर पड़ते रहते हैं, हम उन्हीं में खोये रहते हैं, ऊपर-ऊपर ही जीते हैं. भाव यदि शुद्ध नहीं है तो विपरीत परिस्थितियां हमें दबोच लेती हैं, मन प्रतिक्रिया करता है, पर जो गहरे एक बार भी उतरा है उसे जगत की क्षण भंगुरता का भान हो चुका है. वह फंसता नहीं, वह जानता है कि होकर भी वह इस जगत का नहीं है और नहीं होकर भी यहाँ से गया ही नहीं, वह सदा मुक्त है. वह भीतर प्रेम से भी परिपूर्ण है और वैराग्य से भी. वह निरंतर उस अखंड के साथ है वह अपने भीतर के प्रकाश को, सत्य को, अमरता को भी देख चुका है तथा अंधकार, असत्य तथा मृत्यु के अभाव का भी उसे अनुभव हो चुका है. साधक को इसलिए अपने मन की भाव दशा के प्रति सजग रहना होता है, मनसा, वाचा, कर्मणा वह तभी सत्य का पालन कर सकता है जब भाव शक्ति शुद्ध रहे, तब वह सदा जगत का कल्याण ही चाहेगा, वह तब जगत में उस फूल की तरह रहेगा जो सहज ही अपनी सुवास बिखराता है.


5 comments:

  1. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन सही मायने में 'लोकमान्य' थे बाल गंगाधर तिलक - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  2. अंत :करण की शुद्धि ज़रूरी है। बुद्धि का पात्र भी पवित्र हो। मन तो आता ही बाहर से है। बुद्धि पवित्र हो तो उसे (मन को )साक्षी भाव देख बाई पास कर दे। आत्मा की मनन शक्ति है हमारा मन। मैं आत्मा इस मन और बुद्धि का स्वामी हूँ यह भाव रहे। मैं आत्मा शांत स्वरूप हूँ परमात्मा का ही वंश हूँ।आनंद प्रेम और पवित्रता मेरा मूल धर्म है मैं आत्मा हूँ ही पवित्र ज्योति स्वरूप ,ज्योतिर्लिन्गम शिव की आधात्मिक संतान। भाव तो फिर आप से आप पवित्र बनेगा। चित्त प्रशांत।

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  3. महेंद्र जी व मदन जी स्वागत व आभार !

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