Thursday, February 7, 2013

मन वैरागी हो जाये तो


वैराग्य का अर्थ जगत से भागना नहीं है, बल्कि वस्तुओं, व्यक्तियों और परिस्थितियों में स्वयं को न उलझाना, जैसे हम गुलाब की झाड़ी के पास अथवा जंगल में स्वयं को बचाकर चलते हैं, वैसे ही जगत में न किसी के अहंकार को ठेस पहुंचा कर न स्वयं को दूसरों के द्वारा पीड़ित होकर चलने का अभ्यास ही वैराग्य है. ऐसा व्यक्ति ही सच्चा प्रेम कर सकता है, क्योंकि उसकी ऊर्जा उसके भीतर ही है, वह किसी से कोई अपेक्षा नहीं रखता. सहज भाव से वह अपने कर्मों को किये चले जाता है. सुख पाने की लालसा, प्रेम पाने की आकांक्षा उसे कहीं बाँधती नहीं है. वह उस मधुमक्खी की तरह है जो अपने पंखों को बचा कर मधुपान करती है न कि उस मक्खी की तरह जो अपने पंखों सहित शहद में जा फंसती है. जिसे न मान की इच्छा है न अपमान का भय वही सही मायनों में मुक्त है. मोह हमें बांधता है, वह सदा नीचे की ओर ले जाता है, प्रेम सदा ऊपर की और ले जाता है, वह हल्का है. हमें साधना के पथ पर स्वयं को खाली और हल्का करते जाना है. तभी ईश्वर बाँसुरी की फूंक हमारे भीतर भर सकता है, हमारी आत्मा का संगीत तभी हमें सुनाई देता है.

5 comments:

  1. ati sundar vichar****मोह हमें बांधता है, वह सदा नीचे की ओर ले जाता है, प्रेम सदा ऊपर की और ले जाता है, वह हल्का है.

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  2. वह उस मधुमक्खी की तरह है जो अपने पंखों को बचा कर मधुपान करती है न कि उस मक्खी की तरह जो अपने पंखों सहित शहद में जा फंसती है.

    बहुत सुंदर जीवन मार्गदर्शन ...

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  3. .शुक्रिया आपकी नित्य टिप्पणियों का .

    विराग की सुन्दर व्याख्या की है आपने .आभार .मन वैरागी हो गया पढ़ते पढ़ते .

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  4. बहुत सुंदर मार्ग दर्शन देते विचार,,,,

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  5. मधु जी, अनुपमा जी व धीरेन्द्र जी आप सभी का स्वागत व आभार !

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