Wednesday, November 21, 2012

ज्योति जल रही उसकी भीतर


अक्टूबर २००३ 
परमात्मा सद्गुरु के रूप में बार-बार धरा पर अवतरित होते हैं. कृपा की फुहार बरसाते हैं. कुम्भ के रूप में हम जिस ब्रह्माण्डीय शक्ति की उपासना करते हैं वह उसी का रूप है. यदि हम उसे अपने जीवन रूपी रथ को हांकने के लिए कहें तो वह तत्क्षण तैयार हो जाते हैं. वह हमारी चेतना की मूर्छा को दूर करते हैं. जीवात्मा रूपी अर्जुन जब परमात्मा रूपी कृष्ण को अपना गुरु बनाता है तो वह उसे प्रेरित करते हैं, ज्ञान प्रदान करते हैं, ध्यान की विधि बताते हैं. अनेकों उपायों से वह अर्जुन की सुप्त चेतना को जागृत करते हैं. अहंकार का आवरण दूर करते हैं. जीवन अमूल्य है, उसी का उपहार है, वही इसका आधार है, हमें उसे ही जानना है जो इस देह और मन के भीतर ज्योति जलाकर बैठा है. जगत तो एक साधन है शरीर को चलाने के लिए, ज्ञान पाने के लिए. कृपा होते ही यह जीवन एक उत्सव बन जाता है. गूंगे की मिठाई की तरह जो भीतर को रस से भर देता है. तब भीतर उजाला ही उजाला भर जाता है, जिसमें सभी कुछ स्पष्ट है, कहीं कोई संशय नहीं रहता.

6 comments:

  1. बेहद भावपूर्ण प्रस्तुति, परमात्मा का वर्णन बेहद सुन्दर ढंग से किया है आपने।
    अरुन शर्मा - www.arunsblog.in

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  2. कहीं कोई संशय नहीं रहता.
    बिल्‍कुल सही कहा आपने ... आभार

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  3. सद विचारों की सरणी आप लगातार प्रवाहित कर रहीं हैं .आभार

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  4. जगत तो एक साधन है शरीर को चलाने के लिए, ज्ञान पाने के लिए.......बेहतरीन लगी पोस्ट।

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  5. बेहतरीन सदविचारों की सुंदर प्रस्तुति,,,

    recent post : प्यार न भूले,,,

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  6. अरुण जी, सदा जी, इमरान, वीरू भाई व धीरेन्द्र जी आप सभी का स्वागत व आभार !

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