Monday, September 3, 2012

भीतर गूंजें गान अनोखे


अगस्त २००३ 
हमारी साधना का एकमात्र उद्देश्य अंतःकरण की शुद्धि है, अंतःकरण चित्त, बुद्धि, मन, अहंकार सभी को धारण करता है. सोचने की शक्ति भी यहीं है, हमारी सोच ही साधना का मार्ग तय करती है. बाह्य साधन तो मात्र तैयारी के लिये हैं. मानसिक स्थिति ही हमारी सही स्थिति को दर्शाती है. जब चित्त शुद्ध होगा तभी उसमें परमात्मा का वास होगा, अंतःकरण की शुद्धि का सबसे बड़ा साधन है अपने दोषों को देखना. सदगुरु रूपी आईने में हमें अपने दुर्गुण स्पष्ट दिखने लगते हैं, परदोष देखने की प्रवृत्ति, अधीरता, तितिक्षा की कमी, वाणी का असंयम और भी कई दोष जिन्हें हमें एक-एक कर के निकालना है, तभी चित्त शुद्ध होगा. सदगुरु इसके लिये एक सरल उपाय बतलाते हैं, जब संसार का चिंतन बंद करके हम परमात्मा का चिंतन करेंगे तो मन में विकार नहीं जगेंगे. दोष तभी आते हैं जब हम सांसारिक सुख चाहते हैं, फिर ध्यान में पूर्व संचित संस्कारों का क्षरण होगा और तब मन ठहर जाता है. भीतर मौन जगता है, उस मौन में संगीत सुनाई देता है. वह संगीत इतना सूक्ष्म होता है कि गहन मौन में ही हम उसे ग्रहण करते हैं. हमारा एक मात्र लक्ष्य यदि सत्य को जानना है तो व्यर्थ के कार्यों में स्वयं को लगाना अनुचित होगा. हमारा प्रत्येक क्षण उसी आत्मभाव को प्राप्त करने में लगे जो अमृतत्व है, जो हममें अनंत ऊर्जा का संचार करता है, जो कल्याण मय है, जो हमें आगे बढ़ते रहने को प्रेरित करता है. वही हमारा साध्य है.

4 comments:

  1. वही हमारा साध्य है.

    बिल्‍कुल सही कहा है आपने .. आभार

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  2. हमारी साधना का एकमात्र उद्देश्य अंतःकरण की शुद्धि है, अंतःकरण चित्त, बुद्धि, मन, अहंकार सभी को धारण करता है.

    सत्य को उद्घाटित करता विचार

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  3. सदा जी व रमाकांत जी, आपका स्वागत व आभार!

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  4. जब चित्त शुद्ध होगा तभी उसमें परमात्मा का वास होगा, अंतःकरण की शुद्धि का सबसे बड़ा साधन है अपने दोषों को देखना. सदगुरु रूपी आईने में हमें अपने दुर्गुण स्पष्ट दिखने लगते हैं, परदोष देखने की प्रवृत्ति, अधीरता, तितिक्षा की कमी, वाणी का असंयम और भी कई दोष जिन्हें हमें एक-एक कर के निकालना है, तभी चित्त शुद्ध होगा........बहुत ही प्रेरक है पोस्ट।

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