Sunday, June 12, 2011

आध्यात्मिक यात्रा


मई २०००
नुक्ते की फेर में जुदा हुआ
नुक्ता ऊपर रखा तो खुदा हुआ
हम भी अपने मन रूपी नुक्ते को सही जगह नहीं लगाते और ईश्वर से विमुख हो जाते हैं. बिना इसके मस्तिष्क को ज्ञान की हजारों बातें भर लेने से भी कोई लाभ नहीं होता, वह मात्र बौद्धिक विलास बन  कर रह जाता है. यदि वास्तव में अनुभव न किया जाये तो धर्म भी नशे की तरह है. धीरे धीरे ही सही आध्यात्मिक यात्रा जारी रखनी होगी. इस संसार को स्वप्न की भांति देखने की समझ आने लगे, दूसरों के दृष्टिकोण को देखने की तथा हरेक में उसी अन्तर्यामी के प्रकाश को देखने की समझ आने लगे व अपनी त्रुटियों को स्वीकारने की हिम्मत भी, इससे मानसिक ऊर्जा का ह्रास नहीं होता तथा मन कमल पत्तों पर पड़ी ओस की बूंदों की नांई शांत रहता है.

2 comments:

  1. और यह आध्यात्मिक यात्रा है भी ऐसी कि जिसके लिये हमे कहीं जाने की जरूरत नही,जहां भी हैं इस समय ,वहीं ठहर कर मन को देखने की जरूरत है कि आखिर ये भाग भाग कर जाता कहाँ है,देखते रहने से ही इसकी दौड़ रुकने लगती है जब जब यह रुकता है , हम अपनी मंजिल पर ही होते हैं.

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  2. बहुत सही कहा है, इस यात्रा की मंजिल भी यहीं है और अभी है यदि कोई देखने वाला हो !

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